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Kshtriya Powar(Panwar) Samaj aur Powari(Panwari) Sanskrati

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Description
English: क्षत्रिय पोवार(पंवार) समाज और पोवारी(पँवारी) संस्कृति

अठारहवीं शदी के प्रारंभ में औरंगजेब के विरुद्ध संघर्ष हेतु देवगढ़ के राजा ने सहयोग के लिए मालवा और राजपुताना से क्षत्रियों को आमंत्रित किया था और उन्हें इन क्षेत्रों में स्थायी रूप से बसने के लिए प्रेरित भी किया। बाद में मराठा काल में भी हमारे पूर्वज क्षत्रियों ने उन्हें सैन्य और राजकीय सहयोग प्रदान किया था। १७७५ के आसपास में पूर्वज क्षत्रिय वैनगंगा घाटी में पूर्णतया बस चुके थे। भाटों की पोथियों के अनुसार ये लोग अलग-अलग क्षेत्रों से १७ वी सदी के आसपास आये थे और सर्वप्रथम नगरधन तथा आसपास के क्षेत्र में रहने लगे थे। छत्तीस कुल के इस समूह में अग्निवंश के साथ अन्य वंश के क्षत्रिय समूहों के होने का उल्लेख भाट और अन्य इतिहासकार मानते हैं. इस हिसाब से हमारे हर कुर का उत्त्पति स्थल तक पहुंचना एक शोध का विषय हैं और कई शोधकर्ता इस पर कार्य भी कर रहे हैं। पोवारों की एक विशिष्ट पोवारी संस्कृति और बोली का अलग महत्व है, जिसके आज के स्वरूप व अस्तित्व का विकास नगरधन-वैनगंगा क्षेत्र में हुआ है। जो उनके अतीत के क्षेत्र की संस्कृति से कुछ भिन्न भी दिखता हैं। सम्भवतया: पूर्वज क्षत्रियों का संघ मालवा से बुंदेलखंड होते हुए इस क्षेत्र में आये और मराठों से संपर्क के कारण राजपुताना और मराठी संस्कृति का समन्वय हुआ है जो आज स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है। जिला गैज़ेट से लेकर सभी दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख हैं की ये राजपूत हैं और मालवा राजपुताना से उत्तर की ओर बढ़ने के बाद इधर आये और इनकी बोली और संस्कृति में ये क्षेत्रवार प्रभाव परिलक्षित भी होता है। लेकिन अध्ययनों के अनुसार पोवारों की बोली और संस्कृति का व्यापक स्वरूप इसी क्षेत्र में विकसित हुआ। ये लोग अपने परिवार लेकर आये और वैनगंगा क्षेत्र में स्थायी रूप से बस गए और पुरे देश में पोवारी बोली बोलने वाले सिर्फ यही एकमात्र क्षत्रिय संघ पोवार(पंवार) हैं। इतने वर्ष बीत जाने के बाद अब हमारे पूर्वजो के भाटों द्वारा पोथियों में दर्ज मूल निवास से कोई सम्बन्ध नहीं मिलता और वैनगंगा क्षेत्र ही अब पोवारों के मूल निवास हैं। अनेक ब्रिटिश रिपोर्ट्स और पुरखों के अनुसार ये लोग अपने ही कुलों में विवाह करते रहे हैं. हालांकि छत्तीस कुल में तीस कुल ही वर्तमान में वैनगंगा क्षेत्र में हैं और हो सकता है की बाकि कुल युद्ध के बाद वापस चले गए हों या इधर आये ही न हों। हमारे पुरखों ने मालवा के राजपाठ खोने के बाद एक सैनिक जत्थों के रूप में मुस्लिमों के विरुद्ध संघर्ष में अनेक राजाओं का सहयोग किया हैं। बुंदेलखंड में छत्रसाल बुंदेला और देवगढ़ राजा बुलंद बख्त के विरुद्ध सहयोग से मुगलों को शिकस्त देना मुख्य रूप से इतिहास में मिलता हैं। पर शायद ये सिर्फ सैनिक अभियान ही थे और इनकी स्थायी बसाहट वैनगंगा क्षेत्र में ही हुयी। पोवारों की विशिष्ट संस्कृति हैं और काफी हद तक अन्य समाजों और यहां तक की पूर्व के दर्शाये क्षेत्र के राजपूतों से अब कुछ भिन्न संस्कृति हैं। इन पोवारों की आज की पोवारी संस्कृति और बोली का स्वरूप देश में कहीँ और देखने में नहीं आया और अब यही क्षेत्र इनका मूल निवास हैं। हालाँकि अब संचार के साधन बढ़ने से देश भर के क्षत्रियों के संपर्क बढ़े हैं पर इनसे हम लोगों की सांस्कृतिक भिन्नता स्पष्ट दिखती हैं और बोली तथा रीतिरिवाज भी भिन्न है। पोवारों का हर कुल एक अलग क्षत्रिय कुल हैं और उसका अपना इतिहास है पर अब सैकड़ों वर्षों के बित जाने से तथा इन ३६ समूह के साथ साथ रहने के कारण उनका मूल ढूँढना एक चुनौती हैं जिसके प्रयास जारी है। विशेष रूप से १७वी सदी के बाद से मध्यभारत में पोवारों का स्पष्ट और लिखित इतिहास कई रूप में मिल जाता हैं और हम सभी को अपनी संस्कृति और बोली जो आज ज्ञात हैं, उसी रूप में सहेजना और आनेवाली नई पीढ़ी तक सुरक्षित हस्तांतरित कर ही उदेश्य होना चाहिए। आओ सभी मिलकर सार्थक प्रयास करें।

क्षत्रिय पंवार(पोवार) समाजोत्थान संस्थान, बालाघाट
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Source Own work
Author Kshtriya Panwar Powar

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